PANKHURI

PANKHURI
कुछ आखर-कुछ पन्ने

Friday, May 4, 2012



रोज़ ही 
दौड़ती रहती हूँ सारा दिन...,
इस-उस परछाई को पकड़ने में मसरूफ़ रहा करती हूँ...,
कुछ लम्हे 
जो गिर गए थे
ख्वाहिशों की जेब से कभी, 
उन्हें बीनने-बटोरने-सहेजने में
लगी रहती हूँ
अल्स्सुबह से गयी शाम तक....

और ये सब करते रहने के दरमियाँ
हर पल...,हर छिन....
सोचती रहती हूँ तुम्हें
बस तुम्हें....,

तुम्हारी बातें, तुम्हारा चेहरा,तुम्हारी हँसी,
तुम्हारा रूठना..., फिर मेरे मनाते ही झट मान जाना...,

सारी बंदिशों...पहरों...से परे,
हजारों मसरुफियात के बीच 
मेरा...... तुम्हारे बारे में सोचना चलता रहता है...,
सामने.....या साथ में.......या पास में......कोई भी हो......
कोई फ़र्क नहीं पड़ता...,

कुछ भी रुक जाए...
सोच नहीं रूकती...
जैसे मरने से पहले धड़कन नहीं रूकती...
सोच चलती रहती है...
जैसे ज़िंदा रहने तक साँसे चलती रहती हैं...!