PANKHURI

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कुछ आखर-कुछ पन्ने

Sunday, November 18, 2012

नसीहत....!!



                 


क्या समझते हो जी...
तुम अपनेआप को....? 

किस्मततराश.....
या
कोई ऐसा पीर मुसव्विर....
जिसके बनाये सारे शाहकार ज़िंदा हो जाया करते हैं.

क्या लगता है तुम्हें जनाब...?

कि तुम शहंशाह-ए-कायनात हो
और तुम्हारे एक इशारे पर
सूरज फटाक से रात का कम्बल फेंक  
उनींदी आँखों से ही
तुम्हारी सियाह राहों के अँधेरे दूर करने
तुम्हारी खिदमत में आ खड़ा होगा.

तुम घूर कर देखोगे और चाँद मियाँ
अपनी चंदनिया की गलबहियाँ छोड़
तुम्हारे सूने उदास बेनूर सपनों को सजाने
झट तुम्हारे आँगन में उतर पड़ेंगे.

काहे के मुगालते में हो बंधु....?

कि तुम्हारी पसीने से झिलमिल होती पेशानी को
सुखाने के लिए ही जन्नत से हवा चलती है
और
तुम्हारे उमर भर की थकान से सूखते हलक को तर करना ही
सात समन्दरों के वजूद का मकसद है.


हद करते हो तुम भी यार.....सोच तो लो ज़रा
कि दुनिया अगर तुम्हारी ही खातिर,
तुम्हारे ही चलाने से चलती होती
तो तुम इंसान न होकर खुदा होते....!
तौबा....तौबा....अब तो अक्ल से काम लो !!

Saturday, November 17, 2012

हर दिन...., हर बार....!!!


दूर होना चाहती हूँ तुमसे.

इतनी दूर कि तुम तो क्या,
तुम्हारा एहसास भी पहचान न सकूँ.

इतनी अजनबीयत बो देना चाहती हूँ अपने दरमियाँ 
कि करीब से गुज़र जायें हम
और कोई आहट भी न हो.

इतनी सघन चुप्पी भर देना चाहती हूँ
हमारे बीच बिखरे सारे पलों में
कि सदियाँ आवाज़ देती रहें
और किसी को कुछ भी सुनाई न दे.

चाहती हूँ कुछ ऐसा ही करना हर दिन...हर बार....

लेकिन बुरा हो इन आँखों का
जो तुम्हें सोचते ही बेसाख्ता बरस पड़ती हैं और
बहा ले जाती है सारा सोचा हुआ...चाहा हुआ...
हर दिन...., हर बार....!!!  

 

Thursday, November 15, 2012

जमी हुई झील...!!

                           
                         जिसे छेड़ दिया है तुमने

ठंडी-जमी बर्फ़ समझ कर...
देख लेना
कहीं वो आग की जमी हुई झील तो नहीं...
कि आग भी अगर जम जाये तो 
सर्द......ठंडी हो जाया करती है.
और उस सर्द सतह के नीचे बाकी रहती हैं
तपिश और लपटें...
उसे अगर छेड़ा जाये तो
बह निकलता है धधकता लावा...
और नेस्तनाबूद कर डालता है 
बस्तियों की बस्तियां....

सोच लेना फिर से....
कि....
जमी हुई आग
जमी हुई बर्फ़ से ज़्यादा खतरनाक होती है.

Wednesday, November 14, 2012

तुम्हारी प्रतीक्षा में...!!





मेरे मन की दहलीज पर
ये जो वंदनवार देख रहे हैं सब... 

तुम्हारी ही प्रतीक्षा की वो घड़ियाँ हैं
जिन्हें चुनकर अशोकपत्र सा सजाया है मैंने....
कहा था न तुमने कि.....
आओगे !!

...और ये जो गेंदे की सिंदूरी लड़ियाँ
सजने जा रही हैं इस वंदनवार में...

तुमसे मिलने की अभिलाषाऔर उल्लास हैं ये....
कहलाया है न तुमने कि
आ रहे हो !!!