PANKHURI

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कुछ आखर-कुछ पन्ने

Wednesday, December 5, 2012

एक खुशफ़हमी....!



क्या समझते हो जी...
तुम अपनेआप को...?
किस्मततराश.....
या
कोई ऐसा पीर मुसव्विर....
जिसके बनाये सारे शाहकार ज़िंदा हो जाया करते हैं ?

क्या लगता है तुम्हें जनाब...?
कि तुम शहंशाह-ए-कायनात हो
और तुम्हारे एक इशारे पर
सूरज फटाक से रात का कम्बल फेंक  
उनींदी आँखों से ही
तुम्हारी सियाह राहों के अँधेरे दूर करने
तुम्हारी खिदमत में आ खड़ा होगा ?

तुम घूर कर देखोगे और चाँद मियाँ
अपनी चंदनिया की गलबहियाँ छोड़
तुम्हारे सूने उदास बेनूर सपनों को सजाने
झट तुम्हारे आँगन में उतर पड़ेंगे ?

काहे के मुगालते में हो बंधु....?
कि तुम्हारी पसीने से झिलमिल होती पेशानी को
सुखाने के लिए ही जन्नत से हवा चलती है
और
तुम्हारे उमर भर की थकान से सूखते हलक को तर करना ही
सात समन्दरों के वजूद का मकसद है ?


हद करते हो तुम भी यार.....सोच तो लो ज़रा
कि दुनिया अगर तुम्हारी ही खातिर,
तुम्हारे ही चलाने से चलती होती
तो तुम इंसान न होकर खुदा होते....!
तौबा....तौबा....
अब तो अक्ल से काम लो !!

बात बस इतनी सी....!



वो देर से खुरच रहा है अपनी हथेली
कि अपने हाथ की लकीरों में उसे
तलाश है मेरी....मेरे नाम की. 

देर से ढूँढ रहा है वो  
उन लकीरों में परत-दर-परत
जवाब एक ही सवाल का ....
कि मैं उसके साथ....उसकी ज़िन्दगी में
बिन माँगी दुआ सी क्यों और कैसे आ गयी....
वो भी तब....
जब उसने दुआएं माँगना भी छोड़ दिया है.

दीवाना है....कोई समझा दे उसे
कि उन हाथों की लकीरों में मैं थी ही कहाँ
जों अब मिल जाऊंगी...
मेरा सिलसिला ढूँढने के लिए तो
उसे पलट कर पीछे देखना होगा...
और पहचाननी होंगी
अपने क़दमों के निशान के साथ बनती
एक जोड़ा दूसरे पांवो की छाप..
जो लगातार चल रही है उसके साथ...
उसके पीछे....सदियों से....जन्मों से.

मैं उस तक किसी लकीर को थाम कर पहुँची ही कब....
मैं तो उसके पीछे पाँव से पाँव मिलाते चली ही आ रही हूँ....
युगों से......
और ये यात्रा चलती ही रहनी है
आगे भी अनंत युगों तक.
कोई है जो समझा दे.....
इतनी सी बात उस दीवाने को !!

आओ....कुछ देर को....!!

आओ कुछ देर के लिए अपनी तकदीरें बदल लें.

कुछ देर तुम जीकर देखो मेरी ज़मीन पर
और कुछ देर
मैं तुम्हारे आसमान पर उड़ लूँ
आज़ाद...बिल्कुल तुम्हारी तरह.

कुछ देर तुम मेरी अधूरी पड़ी कहानियाँ पूरी करो
और तब तक कुछ देर को
मैं तुम्हारी कुछ मुकम्मल कवितायेँ गुनगुना लूँ.

कुछ देर तुम मेरी तल्ख़ हकीकतों से उलझ कर देखो
तब तक कुछ देर
मैं तुम्हारे नर्म सतरंगी सपनों
से जी बहला लूँ.

आओ कुछ देर के लिए ही सही
हम अपनी तकदीरें बदल लें...
फिर इसके बाद आसान होगा ये तय करना
कि हम दोनों में कौन ज़्यादा किस्मत वाला है !!

एक उम्मीद...,एक संदेसा...,एक कहानी लंबी सी....!!

वो बस मन की दहलीज के बाहर
पहला ही कदम रहा होगा...
ठहरा, थमा, रुका, सहमा,
झिझका, घबराया सा.
पार की थी मन की ड्योढ़ी,
इस उम्मीद के साथ...
कि बाहर निकलते ही मिलोगे तुम
पहले से प्रतीक्षारत...,
मगर हुआ कुछ यूँ
कि सब थे ...बस तुम न थे...,
मैं ड्योढ़ी लांघ चुकी थी और तुम्हारा पहुँचना अभी बाकी था.

मैंने सोचा कि...
तुम्हें देर करने की आदत ठहरी.....मगर आना तो है ही...
कुछ देर ठहर कर प्रतीक्षा कर लूँ
और यूँ ही बैठ गयी मैं
उसी ड्योढ़ी पर तुम्हारी राह देखती....
उधर आँख टिकाये....जिधर से आना था तुम्हें.

ये तो अब जाकर जाना मैंने
कि उस वक्त तुम उधर से गुज़रे ही नहीं...,
किस्मत ने हमारा रास्ता जो बदल दिया था.

मगर तब किसे क्या पता था...किस्मत का लेखा...
सो बैठी रही...
हर आहट पर तुम्हें सुनती रही,
हर चेहरे में तुम्हें ढूंढती रही,
हर नाम में तुम्हें पुकारती रही,
ऐसे ही वक्त बहता चला गया
और मुझे बहते-बीतते वक्त का एहसास तक न हुआ......
मैं बैठी ही रही........बैठी ही हूँ..........
उसी ड्योढ़ी पर आज तक.

और देखो तो ज़रा .....
उमर नाशुकरी...कमबख्त को ...
निकल गयी चुपचाप, मुझे उसी ठाँव बैठा छोड़...
आगे......आगे.....बहुत आगे.............
और अब जा कर उसका संदेसा आया है कि
उसे मिल गए हो तुम.........
उस पहली ड्योढ़ी से आगे....बहुत आगे...
एक नाम, आवाज़, चेहरे के साथ...मेरी प्रतीक्षा करते...
लेकिन अब जिस पड़ाव पर जा पहुंची है उमर...
वहाँ तुम्हें पहचान लेने में वर्जनाएं हैं...रुकावटें हैं.
उस पड़ाव पर तुम एक परछाई से नज़र आते हो
जिसका कोई बदन नहीं....पैरहन नहीं.

फिर भी उमर को यकीन है कि वो तुम ही हो
जिसे मन की ड्योढ़ी के बाहर बैठी जोह रही हूँ मैं
बरसों बरस पीछे.....आज भ

और इसी यकीन से उमर ने आवाज़ दी है मुझे......
बुला रही है आगे....बहुत आगे.....
अपने पास.....अपने बराबर.....

और मैंने भिजवाया है जवाबी संदेसा 
कि वो ही अब आरती उतार ले तुम्हारी,
सदियों की प्रतीक्षा के बाद
गलत जगह, गलत समय पर आने के उलहने के साथ....,
और मुझे बैठा रहने दे यहीं
अपनी अधूरी उम्मीदों के साथ.

अब एक संदेसा तुम्हारे नाम भी.....

" सुनो अगली बार आना
तो सही वक्त- सही जगह आना,
जहाँ मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा में.....
थी.....हूँ.....और रहूँगी.....
कि मुझे पुनर्जन्म में यकीन है
और इस बात में भी
कि इस जनम की अधूरी कहानियाँ
अक्सर अगले जनम में पूरी हो जाया करती हैं...." !!!