वो
फेंक कर शब्द-जाल
पकड़ते हैं भावनाओं की मछलियाँ...
छोटी-बड़ी,
रंग-बिरंगी,
चमकीली-चटखीली,
भावनाएं....
फँस जाती हैं
शब्द मछेरे के शब्द जाल में...
और फिर
जाल तनते ही खींचा जाने लगता है
जीवन के रेतीले,
सूखे-गीले, पथरीले सागर तट पर....
देखते ही देखते
सारी भावनाएं
शब्द जाल से उलट कर आ पड़ती हैं
तपती रेत पर
पहले मरने....
फिर बाज़ार में बिक जाने के लिए...!
जी हाँ...बाज़ार.....
जहां
मरी हुई भावनाओं की तय की जाती हैं...
ऊंची कीमतें,
लगायी जाती हैं बड़ी बोलियाँ ,
घटाए-जोड़े जाते हैं
नफे-नुकसान के
झूठे-सच्चे आंकड़ें,
और इस पूरी आपाधापी में
सूखी रेत पर छटपटा कर मरने वाली
भावनाओं के बारे में कोई नहीं सोचता....
क्योंकि
सोच लेने से ठिठक कर रुक जाने का ख़तरा है...
और
रुक जाने से जीवन नहीं चलता...
जीवन तो चलता है व्यापार से...
नित कुछ नया हासिल करने से...
कुछ बेचने...कुछ खरीदने,
कुछ कमाने से...
तो इसीलिए
शब्द-मछेरे का व्यापार खूब चलता रहता है...
फिर सांझ ढलती है,
फिर दिन निकलता है,
डाले जाने लगते हैं फिर से
शब्द-जाल...
इसी तरह...
जीवन चलता जाता है...
भावनाएं मरती जाती हैं....!!!
हाँ सचमुच, इसी तरह जीवन चलता जाता है... भावनाएँ मरती जातीं हैं... इस भाग-दौड़... इस आपा-धापी में जब सबको सिर्फ़ अपनी-अपनी पड़ी है... किसको फुर्सत है मुड़कर उन मरती हुई भावनाओं पर संवेदनाओं भरी एक नज़र डालने की... शब्द-जाल फेका... कुछ मछलियाँ भावनाओं की फंस गयी उनमें, बस काम हो गया चलते बने... अब कैश करते रहेंगे उन भावनाओं को जब तक बन पड़ेगा... लेकिन क्या होगा तब, जब उन भावनाओं को पता चल जायेगी इन शब्द-जाल की असलियत... क्या तब भी इन शब्द-जालों का जादू यूँ ही कायम रह पायेगा...????
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