PANKHURI

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कुछ आखर-कुछ पन्ने

Friday, September 11, 2009

(2)

ये सहरा किस कदर, फैला हुआ है ।
समंदर का मुझे ,धोखा हुआ है ।
तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
पटकती है लहर, सिर साहिलों पर ,
ये मंजर मेरा भी, देखा हुआ है ।
बनेगी बात कैसे अब हमारी ,
ये धागा , बेतरह उलझा हुआ है ।

''मैं '' प्रतिमा !!!!!!!!!

3 comments:

  1. तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
    वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।

    bahut hi umdaa aur meaari ghazal kahi hai aapne
    har sher apne aap mein mukaamil kahaani bayaan kar rahaa hai....
    badhaaee .
    ---MUFLIS---

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  2. तू उसकी खिलती मुस्कानों पे मत जा ,
    वो अन्दर से बहुत टूटा हुआ है ।
    बहुत सुन्दर बहुत गहराई तक उतरती पंक्तियाँ.

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  3. aatmkatha ?????

    nothing to say ..you made me speachless.

    vijay

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