PANKHURI

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Wednesday, November 14, 2012

तुम्हारे 'होने'...'न होने' से ....!



देखो तो...
सब कुछ
वैसा ही तो रहता है...
बिलकुल.....
वैसा का वैसा...!

चंचल हवा,
गीली, खुशबूदार, उड़ती-फिरती
कभी तेज़ तो कभी मद्धम-मद्धम,

शरारती बादल,
साफ़ आसमान के नीले-चमकीले कैनवास पर
अपनी सियाह कूंची से उकेरी
अद्भुत कलाकृतियों पर इतराते - मंडराते,

मगन धरती,
दूर-दूर तक
दूब की नरम चादर फैलाये
चाँद से ढुलकती ओस की बूंदों को
समेटती-बटोरती,
रिमझिम बारिश,
बूँदों की रुनझुन पाजेब छनकाती
पानी की लड़ियों में हीरे पिरोये
सबको ललचाती


गर्वीली सुनहली सूर्यकिरणें,
ढलती शाम में पल-पल रंग बदल रहे क्षितिज पर
स्वर्णिम आभा का अलौकिक तिलस्म रचती,

और वो सागर ......
इधर से उधर तक फैला - गहराया
कभी खामोश, कभी उफ़न-उफ़न
बौराई लहरों के हाथों
साहिल पर आने-जाने वाले
हर किसी को संदेसा भेजता

हाँ......
ज़रा देखो
सारा कुछ वैसा का वैसा ही तो रहता है....

मगर फिर भी.....
एक केवल
" तुम्हारे साथ होने "
और
" तुम्हारे साथ न होने "भर से
कैसे और क्यों
बदल जाती हैं सारी चीज़ें......सारी बात.........
सारे अर्थ और सारे रंग.......
मेरे लिए,

मैं ये आज तक समझ नहीं पाई
दोस्त ....!!!!





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