हर्फ़-ब-हर्फ़...,
आवाज़-दर-आवाज़...,
ख़याल-दर-ख़याल...,
ख़्वाब-दर-ख़्वाब...,
है एक नाम,
जो घुला जाता है मिसरी की डली सा,
मेरे जीवन की फीकी चाय में....
और
बढ़ती जाती है लज़्ज़त,
मेरी हर सुबह की....!!!
जो कुछ एकान्त में, एकान्त के ही लिये रचा गया हो, उसे सबके सामने यूं व्यक्त कर पाना बडा ही कठिन कार्य है . लेकिन कभी किन्हीं मुखर एकान्त के मौन पलों में अनजाने ही जन्मे भाव को भी अधिकार है कि वो अपनी उपस्थिति दर्शा सके.यही सोचते हुये अपनी इन टूटी-फूटी, आधी-अधूरी भावनाओं के पुलिन्दे को कविता के रूप में आपके सामने रखने का दुस्साहस कर रही हूं.आप इसे कविता मानें ये आग्रह कदापि नहीं है क्योंकि मैं खुद भी आज तक इन्हें ”कविता” नहीं मान सकी. हां, ये मन से मन का संवाद है जो कविता का लिबास ओढे हुये है.
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