क्या समझते हो जी...
तुम अपनेआप को....?
किस्मततराश.....
या
कोई ऐसा पीर मुसव्विर....
जिसके बनाये सारे शाहकार ज़िंदा हो जाया करते हैं.
क्या लगता है तुम्हें जनाब...?
कि तुम शहंशाह-ए-कायनात हो
और तुम्हारे एक इशारे पर
सूरज फटाक से रात का कम्बल फेंक
उनींदी आँखों से ही
तुम्हारी सियाह राहों के अँधेरे दूर करने
तुम्हारी खिदमत में आ खड़ा होगा.
तुम घूर कर देखोगे और चाँद मियाँ
अपनी चंदनिया की गलबहियाँ छोड़
तुम्हारे सूने उदास बेनूर सपनों को सजाने
झट तुम्हारे आँगन में उतर पड़ेंगे.
काहे के मुगालते में हो बंधु....?
कि तुम्हारी पसीने से झिलमिल होती पेशानी को
सुखाने के लिए ही जन्नत से हवा चलती है
और
तुम्हारे उमर भर की थकान से सूखते हलक को तर करना ही
सात समन्दरों के वजूद का मकसद है.
हद करते हो तुम भी यार.....सोच तो लो ज़रा
कि दुनिया अगर तुम्हारी ही खातिर,
तुम्हारे ही चलाने से चलती होती
तो तुम इंसान न होकर खुदा होते....!
तौबा....तौबा....अब तो अक्ल से काम लो !!
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