दूर होना चाहती हूँ तुमसे.
इतनी दूर कि तुम तो क्या,
तुम्हारा एहसास भी पहचान न सकूँ.
इतनी अजनबीयत बो देना चाहती हूँ अपने दरमियाँ
कि करीब से गुज़र जायें हम
और कोई आहट भी न हो.
इतनी सघन चुप्पी भर देना चाहती हूँ
हमारे बीच बिखरे सारे पलों में
कि सदियाँ आवाज़ देती रहें
और किसी को कुछ भी सुनाई न दे.
चाहती हूँ कुछ ऐसा ही करना हर दिन...हर बार....
लेकिन बुरा हो इन आँखों का
जो तुम्हें सोचते ही बेसाख्ता बरस पड़ती हैं और
बहा ले जाती है सारा सोचा हुआ...चाहा हुआ...
हर दिन...., हर बार....!!!
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