वो देर से खुरच रहा है अपनी हथेली
कि अपने हाथ की लकीरों में उसे
तलाश है मेरी....मेरे नाम की.
देर से ढूँढ रहा है वो
उन लकीरों में परत-दर-परत
जवाब एक ही सवाल का ....
कि मैं उसके साथ....उसकी ज़िन्दगी में
बिन माँगी दुआ सी क्यों और कैसे आ गयी....
वो भी तब....
जब उसने दुआएं माँगना भी छोड़ दिया है.
दीवाना है....कोई समझा दे उसे
कि उन हाथों की लकीरों में मैं थी ही कहाँ
जों अब मिल जाऊंगी...
मेरा सिलसिला ढूँढने के लिए तो
उसे पलट कर पीछे देखना होगा...
और पहचाननी होंगी
अपने क़दमों के निशान के साथ बनती
एक जोड़ा दूसरे पांवो की छाप..
जो लगातार चल रही है उसके साथ...
उसके पीछे....सदियों से....जन्मों से.
मैं उस तक किसी लकीर को थाम कर पहुँची ही कब....
मैं तो उसके पीछे पाँव से पाँव मिलाते चली ही आ रही हूँ....
युगों से......
और ये यात्रा चलती ही रहनी है
आगे भी अनंत युगों तक.
कोई है जो समझा दे.....
इतनी सी बात उस दीवाने को !!
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